Friday 22 August 2014

हिन्दू समाज में ‘‘पूजनीय‘‘ शब्द की दुगर्ति

ऐसा क्या कुचक्र चला है हिन्दू समाज पर कि जिसको भी हिन्दु समाज ‘‘पूजनीय‘‘ मानता है, उसी की अपने हाथों ऐसी दुदर्शा कर रखी है जो दुश्मन भी ना करने की हिम्मत करें।

गाय को ही लीजिये -- पारम्परिक रूप से हिन्दू समाज में गाय को माँ का दर्जा दिया गया है और पूजनीय माना जाता रहा है। घर में पकी पहली रोटी गौमाता को खिलाकर ही परिवार स्वंय कुछ खाता था। आज देश के हर छोटे बड़े शहर में हमें गौमाता कूड़े के खत्तों में कचरा खाती दिखती है। भूख से बेहाल गइया प्लास्टिक तक की थैलियां खा जाती हैं। यह हाल सिर्फ उन गायों का ही नहीं जिन्हें दूध बंद होने की अवस्था में उनके मालिक लावारिस छोड़ देते है,  बल्कि उन गायों का भी है जो दूध देती भी है, परन्तु क्यूंकि भैंस की तुलना में देसी गाय कम दूध देती है,  इसलिये उनके मालिक उन्हें भरपेट चारा देने की जरूरत नहीं समझते। देश के कई हिस्सो में देसी गाय दुर्लभ होती जा रही है -- उसकी जगह अमेरीका की जरसी गाय ने ले ली है। अमेरीकन गाय को भले ही हिन्दु समाज पूजनीय ना मानता हो, पर कम से कम उसके मालिक उसे चारा तो भरपेट खिलाते है क्योंकि वे दूध अच्छा देती है। इस अवहेलना की वजह से देसी गाय, जिसे हम भारतीय संस्कृति का पूजनीय प्रतीक मानते है, की नस्ल में भारी गिरावट आई है, हालां कि देसी गाय का दूघ अमृत समान अतुल्य है।

गोहत्या को लेकर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगलने वालों की व दंगे फसाद भड़काने वालो की
कमी नहीं है। पर अपनी गाय माता की सेवा व रक्षा करने वालो की तादाद कम होती जा रही है।

मेरे पड़ोस में एक गो-चिन्तक कूड़े के खत्तों से गौमाता को कचरा खाने की बदहाली से बचाने हेतू एक रेड़ी पर स्टील के बड़े बडे ड्रम रखवा कर मौहल्ले में घुमवाते हैं - इस संदेश के साथ कि गृहणियां अपना बचा खुचा जूठा भोजन, सूखी रोटियां, फलों व सब्लियों के छिलके उन ड्रमों में पड़ोस की भूख से बेहाल गौमाताओ के भोजन के लिये डाल दें। एक ओर तो यह बहुत ही सराहनीय कार्य लगता है। परन्तु दूसरी ओर यह सोचकर मन दुखता है कि जिस देश में हर गृहणी रसोई में पकी पहली रोटी गाय से मुंह छुआ करके ही अन्य सदस्यों को भोजन खिलाती थी, जिस देश में गाय की पूजा और चारा डाले बिना घर में खाना नहीं पकता था,  आज हम उसी गोमाता को रसोई का बचा खुचा, सडा गला खाना देने में भी आलस करते है - कौन अलग थैलियों मे आम या केले के छिलको को डाल गेट तक ले जाये? आज जिस आटे में कीड़ा लग गया, उसे गाय के आगे डाल दिया जाता है।

यही हाल इस देश की नदियों का है। हिन्दू समाज गंगा, यमुना व अन्य कई नदियों को पूजनीय मानता है। यह मान्यता आज भी जीवन्त है कि गंगा स्नान भर करने से जीवन भर के पाप धुल जाते है। इस विश्वास को लेकर बड़े बड़े कुम्भ आयोजित किये जाते है व करोड़ों लोग हर साल गंगा में जाकर डुबकी लगाते है। परन्तु उसी गंगा, यमुना मैया में अपने शहरों के सीवर उड़ेले जा रहे है। हमारी ‘‘पूजनीय‘‘ नदियां आज इतनी विषैली और मैली हो चुकी हैं कि उनमें कोई जीव जन्तु जिन्दा नहीं बचा। गंगा यमुना के तटों पर व पानी में तैरता इतना कचरा मिलेगा, उनके पास जाने पर इतनी दुर्गधं आती है कि दस मिनट खड़ा होना दूभर हो जाता है।

यही दुदर्शा अघिकतर मंन्दिरों की है। दुनिया में किसी और घर्म के पूजा स्थल इतने गंदे, इतने बदहाल नहीं है जितने हम हिन्दुओं के अघिकतर मंदिर। इन मंदिरों में चढावे की कोई कमी नहीं, भक्तों की कतारें लगी रहती है, पर साफ़ सफाई का ध्‍यान रखने की किसी को सुध नही - उन पुजारियो को भी नहीं जो वहां विराजमान देवी देवताओ की सेवा के लिये रखे गये है। जो समाज अपने मंदिरो की अपने पूजा स्थलों की गरिमा बनाये रखने की क्षमता खो बैठा है, वह समाज एक जीवन्त स्वाभिमानी समाज कहलाने का हकदार कैसे हो सकता है? कृष्ण नगरी वृन्दावन व शिवनगरी वाराणसी धार्मिक स्थलों में बहुत प्राथमिकता रखते है। पर उन शहरो की गंदगी, खुले सीवर की भयंकर बदबू शर्मसार कर देती है।

इसी प्रकार हिन्दू समाज स्त्री को पूजनीय मानने का दावा करता है, हर स्त्री को ब्रह्मांड की महाशक्ति का साक्षात् रूप मानने की डींग मारता है। परन्तु वही समाज आज बेटियों के जन्म पर मातम मनाने के लिये व उनकी भ्रूण हत्या के लिये विश्व भर में कुख्यात है। वही पुरूष जो मंदिर मे जाकर देवियों का पूजन व तरह तरह के भजन कीर्तन, कर्म कांड करता है, घर में अपनी बेटी, बहन, मां या पत्नी के साथ दुव्र्यवहार करने में जरा झिझक महसूस नहीं करता।

कहने को औरत घर की लक्ष्मी है, बहन और भाई का रिश्ता पवित्र बंधन है। पर बहन को पारिवारिक सम्पत्ति में हिस्सा देने की बात पर खून खराबे की नौबत आ जाती है।  सम्पत्ति में बेदखल करने के बावजूद बेटियों को ‘‘बोझ‘‘ माना जाता है क्योंकि शादी में दहेज देना पड़ता है। वही भाई जो बहन से राखी बंधवा रक्षा का वायदा करता है, उसी बहन के विधवा होने पर या पति के घर से निकाल दिये जाने पर मायके में रहने का अधिकार देने को तैयार नहीं होता, क्योंकि मां पिता का घर सिर्फ भाइयों और भाभियों की मिल्कियत बन जाता है। वही परिवार जो नवरात्रों में कन्या पूजन करता है, अगले ही दिन अल्ट्रासाऊंड टैस्ट करा अजन्मी बेटी की गर्भपात द्वारा हत्या कराने से नहीं चूकता। 

ऐसे अनेक उदाहरण सिद्ध करते है कि हिन्दू समाज के अघिकतर लोग अपने घर्म और संस्कृति के मूल सिद्धांतों से केवल रिचुअल के जरिये जुड़े है और रिचुअल भी ज्यादातर फिल्मी ढंग के होते जा रहे है।


आये दिन हमारे समाज सुधारक सरकार से नये नये उल्टे सीधे, औने-बौने कानूनों की मांग करते रहते है। क्यूं ना यह मांग की जाये कि हिन्दू समाज को तब तक पूजा के अघिकार से वंचित कर दिया जाये जब तक वह इस बात को फिर से आत्मसात् नहीं करता कि हमारी संस्कृति में ‘‘पूजनीय‘‘ शब्द के सही मायने क्या रहे है और उसके साथ क्या क्या जिम्मेदारियां जुड़ जाती हैं। पूजा के हकदार वही लोग हैं जो ‘‘पूजनीय‘‘ शब्द की गरिमा को पालन करने की क्षमता रखते है।


यह लेख पहले दैनिक भास्कर, मई 27, 2013 में प्रकाशित किया गया था

Thursday 24 July 2014

देश में बढता जुवैनाइल क्राईम - भारत क्‍यूं लुम्‍पन फौज तैयार करने की फैक्‍ट्री बन रहा है ?


दिल्ली गैंगरेप केस के आरापियों में से एक आरोपी किशोर है उसे क्‍या सजा होगी, इस बात पर गरमागरम बहस हो रही है। बाल आपराधियों के लिये अदालती कार्यवाही व सजा का प्रावधान बिल्‍कुल अलग है और सजा बालिग अपराधि‍यों से बहुत कम होती है। सजा क्‍या, जुवेनाइल जस्टिस एक्‍ट के तहत उन्‍हे सुधार के लिये जुवेनाइल होम्‍स में भेज दिया जाता हैा मेरा मानना है कि जुवेनाइल शब्‍द में कई तरह की समस्‍यायें है। कानूनन जुवेनाइल वह है जो 18 साल से कम उम्र का है। इस 18 साल को हमने एक मैजिकल रेखा बना दिया है। सिर्फ अपराध के सम्‍बन्‍ध में ही नही, दुसरे कई मामलों मे भी। जैसे 18 साल से कम उम्र की लडकी की शादी गैर कानूनी है। उससे लैगिंक रिश्‍ता रखना भी दंडनीय है, चाहे लडकी अपनी इच्छा से ही शादी क्‍यों न करना चाहे। पर अगर 18 साल से कम उम्रका व्‍यक्ति बलात्‍कार करता है तो उसके साथ नरमी बरती जाती है।

सुधार के नाम पर
जब जुवेनाइल जस्टिस ऐक्‍ट बना तो माना गया कि कच्‍ची उम्र के अपराधियों को सजा की नहीं, सुधार की जरूरत होती है क्‍योकि वह वयक्ति नासमझ होता है। इसलिये उसे जेल नहीं करैक्‍शन होम्‍स में रखा जाना चाहिये।लेकिन आज की हकीकत यह है कि करैक्‍शन होम्‍स की हालत जेलों से कही बदतरहैा एकदम टॉर्चर चैम्‍बर्स की तरह। यहां बच्‍चे भयानक किस्‍म के शारीरिक, मानसिक और यौन शोषण के शिकार होते है। जेलों में तो फिर भी कोई कायदा कानून लागू होता है क्‍योंकि यहां खुद अपराधी अपनी बात वकीलों इत्‍यादि द्वारा अदालतों व मीडिया तक अपनीबात पहुंचा सकते हैं। लेकिन जुवेनाइल होम्‍स तो निरंकुश ढंग से काम करते है। उनको बाहरी दुनिया से बिल्‍कुल काट के रखा जाता है। यहां अच्‍छा भला बच्‍चा भी तबाह हो जाताहै। वे मासूम भी टूटी बिखी हालत में बाहर निकलते है और कई अपराधि‍यों की संगत में अपराधी ही बन जाते हैं।

आज सवाल सिर्फ यह ही नही कि 18 से कम उम्र के बच्‍चों को सजा जुर्म अनुसार दी जाये या नाबालिक समझ ढील बरती जाये। बडा सवालयह है कि आज हमारे देश में क्‍यूं और कैस जुवेनाइल अपराधियों की एक भारीभरकम भयानक फौज खडी हो गई है।

साइकोपैथिक फौज
दिल्‍ली गैंगरेप का नाबालिक आरोपी कोई आम अपराधी नहीं, एक साइकोपैथ है। उसने पीडित लडकी का सिर्फ बलात्‍कार किया, उसके शरीर को चीथडे-चीथडे कर दिये। क्‍या ऐसा अपराधी, जुवेनाइल होम के लिये भी खतरा नहीं है? और यह कोई इकलौता साइकोपैथ नहींहै। ऐसे कितने ही युवा भूखे भेडियों की तरह आवारा घूम रहे है। उनकी मानसिक विकृति समाज के लिये बडा खतरा है।

इस साइकोपैथिक फौज में तीन तरह के लोग शामिल है। पहलावह रईसजाता वर्ग है जिसने या जिसकेबाप ने अवैध तरीके से अपार पैसा कमाया है। जाहिर है, यह पैसा उसे हजम नही हो रहा क्‍योंकि उसने उन संस्‍कारो को नहीं जिया है, जो हाथ में आई दौलत का सदुपयोग करना सिखाते हैं। भारतीय संस्‍कृति में सात्विक साधनों द्वारा धन सम्‍पत्ति कमाने और उसके सदुपयोग करने को बहुत अहमियत दी जाती है। हम तीन देवियों की साथ पूजा करते है। लक्ष्‍मी, सरस्‍वती और दुर्गा। लक्ष्‍मी ईमानदारी से धन कमाने का संस्‍कार देती है और सरस्‍वती जी उसे विवेक से इस्‍तेमाल करने का। दुर्गा बताती है कि अगर धन और बुद्धि‍ का इस्‍तेमाल दुष्‍कर्मो के लिये किया तो व्‍यक्ति का वही हाल होगा, जो महिषासुर का हुआ। जिन परिवारों में सिर्फ लक्ष्‍मीपूजा पर बल दिया जाता है वहां कभी सही खुशहाली नहीं आती।

संस्‍कारहीन व्‍यक्ति विवेक छोड देता है और सोचता है कि पैसे से सभी काक खरीदा जा सकता है – सरकारी प्रशासन और पुलिस को भी। ऐसे व्‍यक्ति को औरत भी बिकाऊ लगती है और उन्‍हें बिकाऊ औरते मिल भी जाती है। परन्‍तु इन रईसजादों को लडकियों को सडकों से उठाकर नोचने की जरूरत नहीं पडती। उनके लिये फाइव स्‍टार होटलों में कॉल्‍ गर्ल्‍स तैयार रहती है। उन कॉल गर्ल्‍स के साथ होटलके कमरों में क्‍या होता है, किसी को पता नहीं चलता।
दूसरा वर्ग है, भ्रष्‍ट राजनेताओं, सरकारी अधिकारि‍यों और पुलिस अफसरो के बच्‍चों का। ऐसे कितने ही पुलिस अधिकारी है व एमपी, एमएलए है जिनके बच्‍चे क्रिमिनल गैंग्‍स के सरगना है। उन्‍हें लगता है कि सरकार उनकी मुट्ठी में है। इस सरकारी तंत्र से उपजे रईसजादे के लिये भी हर इन्‍सान खिलौना है। औरत भी। उसके साथ खेल कर उसे तोड देना उनके लिये सामान्‍य बात है क्‍योंकि खिलौना टूटने पर उन्‍हें पर उन्‍हे नये खिलौने मिल जाते हैं।

तीसरा वर्ग गरीब परिवारों से आता है – गांवों से व छोटे शहरों के पुश्‍तैनी धंघों की गरीबी से हताश होकर, उजडकर यह वर्ग बडे शहरों में आकर बसता है। इन्‍हें हम इकानॉमिक रिफ्यूजी कह सकते हैं। खेती व अन्‍य पुश्‍तैनी धंधें उनसे छिन चुके है क्‍योंकि उनसे गुजारा नहीं होता। शहर आकर वह फुटपाथ पर रहते है या अवैध झुग्‍गी बस्‍तियों में। इन बस्‍तियों में यह गरीब उज्ड़े लोग पुलिस व राजनैतिक गुंडो की दहशत के साये तले रहते हैं। झुग्‍गी बनाने से लेकर बिजली, पानी कनैक्‍शन पुलिस व राजनैतिक माफिया को चढावा दिये बगैर कुछ नहीं मिलता। ऐसी बस्तियों में पुलिस अक्‍सर गरीबों को मजबूरन अपराधी गतिविधियों की ओर धकेलती है। ड्रग पैडलिंग, गरीब घर की औरतों को देह व्‍यापार में धकेलना, लड़कियां व छोटे बच्‍चों को अपरहण्‍ करवाने का काम पुलिस की देखरेख में होता है।

शहरी स्‍लम्‍स व अवैध बस्तियों के अपराध लिप्‍त माहौल में पले बच्‍चे बहुत आसानी से अपराध जगत की ओर फिसल जाते है क्‍योंकि वहां हर रोज आत्‍म सम्‍मान को कुचल कर जीना पड़ता है।

हमारी सरकार ने बहुत ताम झाम के साथ राईट टू एडूकेशन का कानून तो पारित कर दिया परन्‍तु स्‍कूल में काम चलाऊ शिक्षा तक देने का इन्‍तजाम नहीं कर पायी। हमारा शिक्षक वर्ग पढाई से ज्‍यादा पिटाई में माहिर है। नतीजतन हमारे बीए एमए पास भी ढंग के चार वाक्‍य नही लिख पाते। दसवी बारहवीं पास को चौथी स्‍तर का गणित नहीं आता। हाल ही में सरकार ने सरकार द्वारा स्‍कूली टीचरों को दिये एक टैस्‍ट में करीब 99 प्रतिशत फेल हो गये। ऐसे स्‍कूलों मे बच्‍चे लफंगपन अधि‍क सीख रहें हैं और पढाई लिखाई कम। हर गांव हर मौहल्‍ले में आठवीं फेल, नवीं नापास, दसवीं ड्रॉप आऊट छात्रों की भरमार लगी है जिनको स्‍कूली शिक्षा ने उनकी पुश्‍तैनी कलाओं व हुनर से नाता तुड़वा दिया परन्‍तु आधुनिक शिक्षा के नाम अक्षर ज्ञान के अलावा कुछ नहीं दिया। पारम्‍परिक पेशों – जैसे बुनकर, लोहार, कुम्‍हार, किसानी, इत्‍यादि में दिमागी व हाथ की दक्षता भी थी और आत्‍म सम्‍मान भी। परन्‍तु फटीचर किस्‍म के अधिकतर सरकारी स्‍कूल किसी क्षेत्र में दक्षता देने में अक्षम्‍य है। स्‍कूलों में टीचरों की डांट डपट व शारीरिक पिटाई बच्‍चों का आत्‍म विश्‍वास व आत्‍म सम्‍मान भी कुचल रही है। ऐसे ही युवक देश की लुम्‍पन फौज का हिस्‍सा बन गांवो और शहरो में कहर मचा रहे हैं। क्‍योंकि ढंग की रोजगार के वे हकदार ही नहीं।
कुछ वर्ष पहले महाराष्‍ट्र के एक गांव में मुझे स्‍थानीय लोगों ने बहुत गर्व के साथ नवीं या दसवीं में पढ रहे एक छात्र से यह कहकर मिलवाया कि यह हमारा सबसे होनहार बच्‍चा है। मैने उसे एक लेख लिखने का आग्रह किया जिसका विषय था -- मेरा जीवन और मेरी आकांक्षायें । एक घण्‍टे बाद जब  उसने मुझे बहुत साफ सुन्‍दर लिखाई में जो दिया उसका शीर्षक था -- राष्‍ट्रपिता महात्‍मा गांधी। मैने हैरत से उसे पूछा कि उसने स्‍वयं अपने जीवन पर क्‍यों नही लिखा, तो उसका जवाब था, मैडम हमारे कोर्स में हमें उस विषय पर अभी लेख नहीं सिखाया। यानि अपने बारे में भी जो छात्र 20-25 वाक्‍य नही लिख सकता, सिर्फ रटे रटाये विषय पर ही लिख सकता है उसकी सोच विचार की शक्‍ति बुरी तरह कुचल दी गई है। मुझे दुख  हुआ कि अगर यह बच्‍चा सरकारी शिक्षा व्‍यवस्‍था का बेस्‍ट प्रोडक्‍ट है तो बाकियों का क्‍या हाल होगा। जब सबसे होनहार छात्रों का यह हाल है तो छठी या दसवीं कक्षा के ड्राप आॅऊट का क्‍या हश्र होगा, सोचकर भी मन शोक से भर जाता है।

ऐसे गरीब टूटे बिखरे दरिद्रता लिप्‍त परिवारों के गुस्‍साये और Frustrated  युवा जिन्‍हें स्‍क्‍ूलों ने नरिवद्द बना दिया बारूद के गोले बन समाज में चारो ओर भटक रहे हैं। 

पुलिस नही] परिवार 
17 वर्ष का बलात्‍कारी भी गांव की गरीबी से हताश हो 12 साल की उम्र में अकेला शहर चल पडा, शायद तीसरी नापास का ठप्‍पा उसे भी लगा था। गरीब मां को मालूम भी नही जिन्‍दा है या मरा। उसने भी इस बेरहम शहर में कितनी दुत्‍कार झेली होगी, कितनी ठोकरें खाई होगी, कितना शोषण भोगा होगा इसका अन्‍दाजा लगाना आसान नही। ऐसे बारूद नुमा युवाओ को विस्‍फोटक बनाने का काम हमारा मीडिया बखूबी कर रहा है। कटरीना कैफ और मलैइका अरोडा के सैक्‍सी झटके ठुमके 24 घण्‍टे टीवी सिनेमा हाल  इत्‍यादि में उन्‍हें भडकाने का काम कर रहे हैं। उस पर पोरनोग्रैफी की चहुं ओर भरमार। इन सबके चलते स्‍त्री के प्रति सम्‍मान की दृष्‍टि यह टूटे बिखरे, प्रताडित व्‍यक्‍ति कहां से लायें? भारतीय संस्‍कृति में स्‍त्री को सृष्‍टि रचाईता के रूप में पूजनीय माना गया और सैक्‍स को भी श्रद्धैय दृष्‍टि से देखा गया है। खजुराहो, कोनार्क व अन्‍य पुरातन मंदिरों में लैगिक क्रिया को sared act के रूप में जगह दी है। अजन्‍ता की चित्रकारी में स्‍त्री का शरीर लगभग वस्‍त्र विहीन है। परन्‍तु इन चित्रों या कोनार्क में शिव पार्वती के प्रेम अलिंगन को देख किसी में अभद्र भावनायें नहीं उत्‍पन्‍न होती।सब श्रद्धेय लगता है। परन्‍तु किंगफिशर के कैलेण्‍डर में बिकनी लैस लडकियों को पेश करने का मकसद केवल एक ही है- मर्दों की लार टपके, उनमें सैक्‍स उत्‍तेजना बढे और स्‍त्री भोग की वस्‍तु दिखे जिसके कपडे पैसे देकर उतरवाये जा सकते है।  विजय माल्‍या जैसे रईस जादों की ऐययाशी के लिये तो ऐसी लडकियों की लाईन हर वक्‍त लगी है। परन्‍तु हमारे लुम्‍पन युवाओं के लिये तो यह ऐय्याशी आसानी से उपलब्‍ध नही। वे तो औरत को नोचने खसोटने के लिये सडकों पर ही शिकार करेंगे।

ऐसी वहशी ताकतों को रोकने का काम पुलिस अकेले कर ही नही सकती। यह तो परिवार और समाज ही कर सकता है। परन्‍तु हर वर्ग में परिवार की जडें कमजोर की जा रही है। अमीर व मध्‍यम वर्ग में पाश्‍चात्‍य संस्‍कृति की भोंडी नकल की वजह से सयंक्‍त परिवार को तोडना आधुनिकता ही पहचान बन गई है।न्‍यूक्‍लीयर परिवार में जहां पति दोनो नौकरी पेशा है वहां बच्‍चों को नौकरों के हवाले करने का मतलब है, उनकी निरंकुश परवरिश। टीवी इन्‍टरनैट से दुनिया से Virtual नाता तो जुड सकता है, परन्‍तु संस्‍कार देने का काम तो केवल परिवार ही कर सकता है जिसमें नानी, दादी, बुआ, मासी, चाचा, चाची का शमिल होना जरूरी है। जहां ऐसे परिवार आज भी जिन्‍दा है वहा बच्‍चे लफंगें नही बनते। जहां परिवार सिकुड गया और पडोसियों व रिश्‍तेदारों से नाता सिर्फ औपचारिक रह गया, वहां बच्‍चों का दिशा विहीन होना आसान है।
दूसरी ओर गरीब परिवार दरिद्रता की वजह से टूट रहे है। गांवो की गरीबी से बदहाल अधिकतर पुरूष अपना परिवार गांव में छोड रोजगार की तलाश में अकेले ही शहरों का रूख करते है क्‍योंकि बेघर अवस्‍था में शहर में परिवार पालना और भी मुश्‍किल है। अकेले होने से शहरों में कुसंगत का असर जल्‍दी होता है और शराब, ड्रग्‍स वे वेश्‍यावृत्‍ति की ओर कदम फिसल जाते है। परिवार के साथ आयें तो अपराध लिप्‍त स्‍लम्‍ज में बच्‍चे पालना जोखिम  भरा काम है। पता नही कब बेटी का अपहरण हो जाये या बीवी गुण्‍डो से अपमानित हो। इन टूटे बिखरे परिवारों से ही एक बडी लुम्‍पत फौज तैयार हुई है। दिल्‍ली गैंग रेप का नाबालिग आरोपी भी इसी लुम्‍पन फौज का सिपाही है। यह सब हमारे समाज के लिये खतरे की घण्‍टी  है क्‍योंकि देश में बढता अपराधी करण एड्स वायरस की तरह पूरे समाज को घुन की तरह खा रहा है। इसका इलाज कानून में दो चार नये प्रावधान जोड या 100-200 को फांसी की सजा सुनाने से ही नही हो सकता। इसके लिये हम सब को धैर्य और संजीदगी से देश की राजनीति व प्रशासन की दशा व दिशा बदलने के साथ समाज की अन्‍दुरूनि शक्‍ति को भी जागृत करना होगा, ताकि लुम्‍पन युवाओं की तडप, आक्रोश व एनर्जी को सही कन्‍सट्रक्‍टिव आऊटलेट्स दे सकें। 
       

इस लेख का एक संपादित संस्करण 15 जनवरी 2013 को नवभारत टाइम्स में प्रकाशित किया गया था:  
http://navbharattimes.indiatimes.com/other/opinion/viewpoint/Juvenile-crime-is-a-symptom-of-the-disease-of-society/articleshow/18020865.cms


Wednesday 23 July 2014

नरेन्द्र मोदी के नाम खुला पत्र



नरेन्‍द्र भाई, आज देश में ऐसे लोगों की भरमार है जो सोचते है कि उनकी सलाह के बगैर आप देश कैसे चला पायेगे। ऐसे लोगों की कतार कितनी लम्‍बी है इसका अन्‍दाजा मैं इसी बात से लगा सकती हूं कि कई ऐसे आतुर उम्‍मीद्वार मुझ जैसे नाचीज के दरवाजे पर भी आकर अपनी अर्जी के साथ साथ अपनी बुद्धिमत्‍ता का प्रर्दशन दे चुके हैं। इनमें से बहुत ऐसे भी है जो कि पिछले 12-13 साल से आपको चुनिन्‍दा गालियां देते रहे और कई ऐसे भी जिन्‍होने बडे लम्‍बे चौडे खुले पत्रों  के माध्‍यम से आपको भारी भरकम सुझाव भी दे डाले। इनमें से अधिकतर ऐसे लोग है जिन्‍होनें  गुजरात में आपके शासनकाल पर सरसरी नजर भी नहीं डाली और न ही कभी आपकी वेबसाइट तक देख्‍ने की जरूरत समझी।

मेरी खुशकिस्‍मती है कि मुझे आपको बिन मांगी सलाह देने की जरूरत इसलिये नहीं पड रही क्‍यूंकि पिछले करीब डेढ साल मैंने बारीकी से आपकी शख्सियत और बतौर मुख्‍यमंत्री आपकी कार्यक्षमता को समझने व परखने का भरसक प्रयास किया है। और इसलिये मुझे मालूम है कि भारत मां के लिये व इस देश के वासियों के लिये मेरी जो भी विश लिस्‍ट रही है उससे भी कहीं अधि‍क सुन्‍दर और सकारात्‍मक सपने आपने इस देश को दुनिया में गौरवान्वित स्‍थान पर खडा करने के लिये संजो रखे है और उन्‍हे कार्यान्वित करने की क्षमता भी आप रखते हैं। सच तो यह है कि मैंने दिलो जान से आपको समर्थन इस उम्‍मीद से दिया कि आप प्रशासन प्रणाली को गरीब व पिछडे वर्गों के हितो के रक्षक के रूप में ढालने के प्रयासों में कोई कसर नहीं छोडेगे ताकि मेरे जैसे वे सब लोग जो दशको से नागरिक अधिकारों के विभिन्‍न मोर्चो में लड़ लड़ के हताश हो चुके हैं, अब अपनी उर्जा सरकार को सकारात्‍मक सहयोग के रूप में लगा सकेंगे।

परन्तु कुछ एक विषयों पर आपके समक्ष अपनी चिन्‍ताये और आकांक्षाये रखने से मन बाज नहीं आ रहा।

अभी तक के जीवन में आपने एक अत्‍यन्‍त सादगी पसन्‍द सन्‍यासी सरीखे व्‍यकित के रूप में खुद की पहचान खडी की है जिसका गुजारा एक छोटे से झोले में पैक दो कुर्तो व कुछ एक मंजन बु्श व कंघी जैसी आवश्‍यक वस्‍तुओं से हो जाता था। परन्‍तु पिछले एक-आध वर्ष में आपकी एक नयी पहचान बनने लगी है – फैशनआइकन के रूप में। आपको जानने वाले सभी व्‍यक्तियों को मालूम है कि आप बचपन से ही बहुत सलीके से रहना और कपडे पहनना पसन्‍द करते है -- वो तब भी जब आपके पास केवल दो जोडी कपडे होते थे। परन्‍तु आज जब टीवी चेनल आपके वार्डरोब में कितने सैकडो कुर्ते या जैकट है इस पर लम्‍बे चौडे प्रोग्राम बनाने लगे हैं, तो मुझे कुछ अटपटा महसूस हो रहा है विशेषकर इसलिये क्‍यूंकि इन शोलो को थोडी बहुत हवा आप भी देते दिखाई दे रहे है। दिन में तीन पब्लिक अपीयरैंस है तो क्‍या तीन अलग अलग कुर्ते और जैकट में दिखना क्‍या जरूरी है? आप पहले की तरह धूप मिट्टी में तो जा नही रहे कि आपके सुबह के पहने कपडे दोपहर तक मैले हो जाये। कृप्‍या  अपने वार्डरोब को थोडा डाउनप्‍ले कीजिये। यह ना हो कि जैसे स्‍नूपगेट जैसे वाहियात खेल कई सालों आपको हल्‍का दिखाने में इस्‍तेमाल होते रहे, अब लोग आपके कपडों पर आपके काम से ज्‍यादा ध्‍यान देने लगे। शिवराज पाटिल जैसे निकम्‍मे राजनेता के लिये अपने सूटबूट के आधार पर पहचान बनाना समझ आता है। परन्‍तु जैसे गुजरात में आपकी पहचान एक सादगीपसन्‍द जन सेवक के रूप में बनी, वही पहचान दिल्‍ली में भी बनी रहे तो अच्‍छा है।
आपको जाननेवाला हर व्‍यक्ति इस बात की गवाही देता है कि आपके विरोधी भले ही आपको कितना भी सताते रहे हों आप अपने सकारात्‍मक कार्यो से विरोधियों को पस्‍त करने में विश्‍वास रखते हैं। आपने गुजरात में भली भाति यह सि‍द्ध करके दिखाया कि जितने पत्‍थर आपके उपर फेके गये उन्‍हे अपने लिये पुल या सीढी बनाने का काम किया, जितना कीचड़ आप पर फेंका गया आपने उतना ही अधिक गौरवशाली भाजपा का कमल आपने गुजरात में खिलाया। दुश्‍मनी भाव से आपने किसी को पस्‍त नहीं किया।

दिल्‍ली में आकर भी आपने इस बात की घोषणा कर दी है कि आपकी सरकार कोई विच हन्‍ट नहीं करने वाली, किसी व्‍यक्ति या दल से बदला लेने की भावना से आपकी सरकार कुछ नहीं करेगी। परन्तु राष्‍ट्र की सुरक्षा और देशहित की यह भी मांग है कि जिन जिन व्‍यक्तियो या दलों ने खतरनाक षडयंत्र रखकर गोधरा कांड को जन्‍म दिया ताकि वह गुजरात में सामप्रदायिक हिंसा भडकाकर दिल्‍ली में अटल जी की सरकार और गुजरात में आपकी सरकार ध्वस्‍त करने में सफल हो, उनका पर्दापाश होना बहुत जरूरी है। अटलजी के प्रधानमंत्री बनते ही कांग्रेस पार्टी व वामपंथी दलों ने चुनिन्‍दा एनजीओ, पत्रकारो व बद्धिजीवियों को एक बडी देशव्‍यापी फौज खडी की – जिनके तार भारत विरोधी विदेशी ताकतो व आतंकवादी गुटों से भी जुडे है। इन सब का सुव्‍यवस्थित ढंग से पर्दापाश होना अति आवश्‍यक है। यह सवाल सिर्फ अटलजी या भाजपा के खि‍लाफ षडयत्र का नहीं। यह सारा षडयंत्र भारत देश को तहस नहस करने की सुनियोजित योजनाओ का हिस्‍सा है जिसमें जाने अनजाने बहुत से प्रतिष्ठित लोग भी जुड गये। इसका खुलासा करना बहुत जरूरी है कि अमर्त्‍य सेन जैसे नामी लोगों ने भारत विरोधी ताकतो को बौदि्धक प्रतिष्‍ठा देने का काम क्‍यूं और कैसे ठाना, तमाम अमरीकन विश्‍वविद्यालयों के दक्षिण ऐशिया अध्‍ययन केन्‍द्रो के नामी ग्रामी प्रौफेसरो को किसने और क्‍यूं पटाया कि भारत का इतना विकृत और घिनौना चेहरा दनिया में इतना जोर शोर से प्रचलित कर दे कि तमाम मुस्लिम जेहादी संगठन हिन्‍दुस्‍तान को आंतंकवादी हमलों के लिये मख्‍य टारगेट बनाने को अपना मजहबी फर्ज बना लें।

जिन जिन एनजीओ ने गुजरात दंगो का विकृत दुष्‍प्रचार दुनिया भर में फैलाया व राष्‍ट्रवादी ताकतो के खिलाफ विषैला मुहिम चलाया, बहुत से झूठे मनगढन्‍त मुकदमें दायर किये, व हमारे मुसलमान भाइबहनों को हिन्‍दू समुदाय के खिलाफ खडा कर साम्‍प्रदायिक रिश्‍तो को जहरीला बनाया – उन सब के कार्यकलापों की निष्‍पक्ष व पारदर्शी जांच बहुत जरूरी है, ताकि देश के आवाम को मालूम हो सके कि यह एनजीओ किसकिस के बलबूते पर ऐसा तांडव करते आये है। आर्थिक भ्रष्‍टाचारपर नियन्‍त्रण पाना जितना जरूरी है, उससे भी ज्‍यादा जरूरी  है ऐसी व्‍यक्तियो व संगठनों पर अंकुश लगाना जो कि संदिग्‍ध विदेशीं फंडिग एंजेन्सियो के बलबूते पर देश की राजनीति व आर्थिक नीतियों में खतरनाक विकार ला रहे है। यह काम गृह मत्रांलय या कोई सरकारी महकमा नहींकर सकता। इस काम के लिये बाकायदा एक Truth Commission बिठाना होगा, जिसको बाकायदा एक कानूनी तहकिकात का पूरा सामर्थ्‍य प्राप्‍त हो।

मैं किसी भी एनजीओ पर प्रतिबंन्‍ध या बैन लगाने के हक में नहीं, सिवाय उनके जो आतंकवादी ताकतो से सीधा रिश्‍ता रखने हैं। परन्‍तु ऐसे बहुत से एनजीओ है जो विदेशी फंडिगं व नेटवर्क से जुडें है जो भारत में आतंकवादी अलगाववादी राजनीति के पनपने के लिये उपजाउ भूमि तैयार करते है या उनके बचाव में मानव अधिकारों के योद्धाओ का मखौटा पहन ढाल बन के खडे हो जाते है,उनका सही चेहरा इमानदरी से देश के सामनेलाना बहुत जरूरी है।

देश के FCRA कानून में स्‍प्‍ष्‍ट रूप से यह हिदायत दी गई है कि FCRA का पैसा राजनैतिक गतिविधियों के लिये इस्‍तेमाल नहीं किया जा सकता। परन्‍तु बहुत से संगठन FCRA कानून के तहत लाये गये पैसो का इस्‍तेमाल चुनिन्दा पार्टीओं व विदेशी संगठनों के नापाक ऐजेन्‍डों को अग्रसर करने के लिये खुलेआम कर रहे है। इस समस्‍या का हल सिर्फ FCRA कानून को मुस्‍तैदी से लागू करने से नहीं हो सकता। इसका केवल एक ही हल है – NGOs को विदेशी फंडिंग ऐजेन्सियों के शिकन्‍जे से पूरी तरह मुक्‍त किया जाये। किसी पर कोई राजनैतिक प्रतिबन्‍ध लगाने की जरूरत नही बस इतना भर काफी है कि जो एनजीओ यदि भारत में काम करना चाहते है तो भारत में ही फन्‍ड जुटाने की क्षमता पैदा करें।

इसी तरह देश मे जो बडे बडे स्‍कैम पिछले कुछ वर्षों में उजागर हुये हैं, कृपया इनकी तहकीकात और इनके मुकदमे स्‍पीड से होने का इन्‍तजाम करना उतना ही जरूरी है, जितना भविष्‍य में भ्रष्‍टाचार को रोकने के संस्‍थागत उपाय। कृपया अटल जी की तरह इस मामले में उदारता ना ही दिखायें तो देश के लिये अच्‍छा होगा। यदि उन स्‍कैम्‍स  के कर्ता धर्ता लोगों की जवाबदेही स्थापित करने में आपने ढील  बरती तो जनता में यह संदेश फैलाने वाले लोग ताक में बैठे है कि आपने उन भ्रष्‍ट ताकतों से कोई अन्‍दरूनी समझौता कर लिया है।‍ ाकायदाएक ट्रूथ कमीशन बिठाया 
  
सादगी के थीम पर वापिस आते हुये एक बात और जोडना चाहती हूं -- मुझे  लगा कि आपकी स्‍वेरिन्‍ग-इन को  बहुत low key event  होना चाहिये था। परन्‍तु ना तो आपका swearing in सादगी का परिचय दे पाया और ना ही एक राज्‍याभिषेक जैसा भव्‍य उत्‍सव बन वाया। गुजरात के मुख्‍य मन्‍त्री के नाते भी आपने शुरू से ही उत्‍सवों की बौछार कर दी थी। परन्‍तु वे सब उत्‍सव अहम सामाजिक मुद्दों से जोडे गये - बच्‍चों को स्‍कूल के लिये प्रेरित करने के लिये शाला उत्‍सव की परिकल्‍पना बहुत मार्मि है। किसानों तक नये बीज व तकनीक ले जाने के लिये कृषि उत्‍सव, गुजरात का पर्यावरण सुधारने के लिये वृक्ष उत्‍सव इत्‍यादि गुजरात के सामाजिक व सरकारी कैलण्‍डर का अभिन्‍न अंग बन गये। परन्‍तु इनमें से कोई भी आपके व्‍यक्‍ति विशेष से नहीं जुडा दिखा।
पिछले वर्ष मैंने गुजरात में आपकी सरकार द्वारा आयोजित दजर्नो कार्यक्रम देखे। हरेक में दूरदर्शी सुव्‍यवस्था व नागरिकों के प्रति संवेदनशीलता की झलक दिखी। परन्‍तु 26 मई का शपथ ग्रहण समारोह बहुत बेतुका लगा। इतनी गर्मी में इतने VIP और भाजपा कार्यकर्ताओं ने घंटों कडक धूप झेली और पसीने में नहाते रहे बिना पानी जैसी बुनियादी सुविधा के। ना तो यह जनता जनार्दन का उल्‍लास भरा उत्‍सव बन पाया और ना ही VIP वर्ग के लिये ग्‍लेमरस कार्यक्रम। ना राम मिला, ना रहीम। परन्‍तु सबसे ज्‍यादा चिन्‍ताजनक बात यह लगी कि सुरक्षा सम्‍बन्‍ध निहायत ढीले थे। यहां तक कि हममें से किसी का पहचान पत्र देखा या मांगा गया। ऐसी और कई कमियां सुरक्षा इंतजामों में दिखी। मैं जानती हूं कि यह कार्यक्रम राष्‍ट्रपति भवन की टीम ने किया, आपकी माहिर टीम ने नहीं। परन्‍तु आशा करती हूं कि गुजरात की तरह केवल VIP कार्यक्रमो की सुरक्षा नही, देश के आम नागरिकों की सुरक्षा आप के लिये प्राथमिक मुद्दा बना रहेगा। कल जब मैंने राष्‍ट्रपति भवन में तैनात पलिसकर्मियों से सुरक्षा सम्‍बन्‍धी इन्‍तजामात की शिकायत की तो उन्‍होनें तपाक से जवाब दिया – ‘’कल से हमारे भी अच्छे दिन आने वाले हैं।‘’ आशा है उनकी उम्‍मीदें व अपेक्षाये आपके प्रेरित करती रहेगी।    



यह लेख पहले जून 2014 में लाइव इंडिया में प्रकाशित किया गया था:

http://www.scribd.com/doc/234840308/An-open-letter-to-Narendra-Modi



Madhu Kishwar

Madhu Kishwar
इक उम्र असर होने तक… … … … … … … … … … … … … … … … … … … … … … …اک عمر اثر ہونے تک