15 जनवरी 2013 पर नव भारत टाइम्स में प्रकाशित
मधु किश्वर ॥
दिल्ली गैंगरेप केस के आरोपियोंमें से एक आरोपी किशोर है। उसे क्या सजा होगी, इस बात पर गरमागरम बहस हो रही है। बाल अपराघियों के लिए अदालती कार्यवाही व सजा का प्रावघान बिल्कुल अलग है और सजा बालिग अपराधियों से बहुत कम होती है। सजा क्या, जुवेनाइल जस्टिस ऐक्ट के तहत उन्हें सुधार के लिए जुवेनाइल होम भेज दिया जाता है। मेरा मानना है कि जुवेनाइल शब्द में कई तरह की समस्याएं हैं। कानूनन जुवेनाइल वह है जो 18 साल से कम उम्र का है। इस 18 साल को हमने एक मैजिकल रेखा बना दिया है। सिर्फ अपराध के संबंध में नहीं, दूसरे कई मामलो में भी। जैसे 18 साल से कम उम्र की लड़की की शादी गैर कानूनी है। उससे लैंगिक रिश्ता रखना भी दंडनीय है, चाहे लड़की अपनी इच्छा से ही शादी क्यों न करना चाहे। पर, अगर 18 साल से कम उम्र का व्यक्ति बलात्कार करता है तो उसके साथ नरमी बरती जाती है।
जब जुवेनाइल जस्टिस ऐक्ट बना तो यह माना गया कि कच्ची उम्र के अपराधियो को सजा की नहीं, सुधार की जरूरत होती है क्योंकि वह व्यक्ति नासमझ होता है। इसलिए उसे जेल नहीं करैक्शन होम्स में रखा जाना चाहिए। लेकिन, आज की हकीकत यह है कि करैक्शन होम्स की हालत जेलों से कहीं बदतर है। एकदम टॉर्चर चैंबर्स की तरह। यहां बच्चे भयानक किस्म के शारिरिक, मानसिक और यौन शोषण के शिकार होते हैं। जेलों में तो फिर भी कोई कायदा कानून लागू होता है, क्योंकि यहां खुद अपराधी अपनी बात वकीलों इत्यादि द्वारा अदालतों और मीडिया तक पहुंचा सकते है। लेकिन जुवेनाइल होम्स तो निरंकुश ढंग से काम करते हैं। उनको बाहरी दुनिया से बिल्कुल काट के रखा जाता है। यहां अच्छा भला बच्चा भी तबाह हो जाता है। इन होम्स में सिर्फ बाल अपराधियों को नहीं रखा जाता। फुटपाथी, लावारिस बच्चों को भी यहां बन्द कर दिया जाता है। वे मासूम भी टूटी बिखरी हालत में बाहर निकलते है और कई अपराधियो की संगत में अपराधी ही बन जाते हैं।
आज सवाल सिर्फ यह नहीं कि 18 से कम उम्र के बच्चों को सजा जुर्म अनुसार दी जाए या नाबालिग समझ ढील बरती जाए। बड़ा सवाल यह है कि आज हमारे देश में क्यूं और कैसे जुवेनाइल अपराधियों की एक भारी-भरकम, भयानक फौज खड़ी हो गई है।
दिल्ली गैंगरेप का नाबालिग आरोपी कोई आम अपराधी नही, एक साइकोपैथ है। उसने पीड़ित लड़की का सिर्फ बलात्कार नहीं किया, उसके शरीर को चीथड़े चीथड़े कर दिए। क्या ऐसा अपराधी, जुवेनाइल होम के लिए भी खतरा नहीं है? और यह कोई इकलौता साइकोपैथ नहीं है। ऐसे कितने ही युवा भूखे भेडि़यों की तरह आवारा घूम रहे है। उनकी मानसिक विकृति समाज के लिए बड़ा खतरा है।
इस साइकोपैथिक फौज में तीन तरह के लोग शामिल हैं। पहला वह रईसजादा वर्ग है जिसने या जिसके बाप ने अवैध तरीके से अपार पैसा कमाया है। जाहिर है, यह पैसा उसे हजम नहीं हो रहा क्योंकि उसने उन संस्कारों को नहीं जिया है, जो हाथ में आई दौलत का सदुपयोग करना सिखाते हैं। भारतीय संस्कृति में सात्विक साधनों द्वारा धन संपत्ति कमाने और उसके सदुपयोग करने को बहुत अहमियत दी जाती है। हम तीन देवियों की साथ पूजा करते है। लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा। लक्ष्मी ईमानदारी से धन कमाने का संस्कार देती है और सरस्वती जी उसे विवके से इस्तेमाल करने का। दुर्गा बताती हैं कि अगर धन और बुद्धि का इस्तेमाल दुष्कर्मों के लिए किया तो व्यक्ति का वही हाल होगा, जो महिषासुर का हुआ। जिन परिवारो में सिर्फ लक्ष्मी पूजा पर बल दिया जाता है वहां कभी सही खुशहाली नहीं आती।
संस्कारहीन व्याक्ति विवेक छोड़ देता है और सोचता है कि पैसे से सभी को खरीदा जा सकता है सरकारी प्रशासन और पुलिस को भी। ऐसे व्यक्ति को औरत भी बिकाऊ लगती है और उन्हें बिकाऊ औरतें मिल भी जाती हैं। परन्तु, अमूमन इन रईसजादों को लड़कियों को सड़कों से उठाकर नोचने की जरूरत नहीं पड़ती। उनके लिए फाइव स्टार होटलों में कॉल गर्ल्स तैयार रहती है। उन कॉल गर्ल्स के साथ होटल के कमरों में क्या होता है, किसी को पता नहीं चलता।
दूसरा वर्ग है, भ्रष्ट राजनेताओं, सरकारी अधिकारियों और पुलिस ऑफिसरों के बच्चों का। ऐसे कितने ही पुलिस अदिकारी हैं और एमपी, एमएलए हैं जिनके बच्चे क्रिमिनल गैंग्स के सरगना हैं। उन्हें लगता है कि सरकार उनकी मुट्ठी में है। इस सरकारी तंत्र से उपजे रईसजादे के लिए भी हर इन्सान खिलौना है। औरत भी। उसके साथ खेल कर उसे तोड़ देना उनके लिए सामान्य बात है क्योंकि खिलौना टूटने पर उन्हें नए खिलौने मिल जाते हैं।
तीसरा वर्ग गरीब परिवारो से आता है गांवो से और छोटे शहरों के पुश्तैनी धंधों की गरीबी से हताश होकर, उजड़कर यह वर्ग बड़े शहरों में आकर बसता है। इन्हें हम इकोनॉमिक रिफ्यूजी कह सकते हैं। खेती व अन्य पुश्तैनी धंधे उनसे छिन चुके हैं क्योकि उनसे गुजारा नहीं होता। शहर आकर वे फुटपाथ पर रहते हैं या अवैध झुग्गी बस्तियों में। इन बस्तियों में यह गरीब उजड़े लोग पुलिस व राजनैतिक गुंडों की दहशत के साए तले रहते हैं। झुग्गी बनाने से लेकर बिजली, पानी कनेक्शन तक पुलिस और राजनैतिक माफिया को चढावा दिए बगैर कुछ नहीं मिलता। ऐसी बस्तियों में पुलिस अक्सर गरीबों को मजबूरन अपराधी गतिविधियों की ओर धकेलती है। ड्रग पैडलिंग, गरीब घर की औरतों को देह व्यापार में धकेलना, लड़कियां और छोटे बच्चों का अपहण करवाने जैसे काम पुलिस की देखरेख में होते हैं।
शहरी स्लम्स और अवैध बस्तियों के अपराध लिप्त माहौल में पले बच्चे बहुत आसानी से अपराध जगत की ओर फिसल जाते हैं क्योकि वहां हर रोज आत्म सम्मान को कुचल कर जीना पड़ता है।
हमारी सरकार ने बहुत ताम झाम के साथ राइट टू एजुकेशन का कानून तो पारित कर दिया, परन्तु स्कूल में काम चलाऊ शिक्षा तक देने का इन्तजा़म नही कर पाई। हमारा शिक्षक वर्ग पढाई से ज्यादा पिटाई में माहिर हैं। नतीजतन हमारे बीए एमए पास भी ढंग के चार वाक्य नहीं लिख पाते। दसवीं बारवीं पास को चौथी स्तर का गणित नहीं आता। हाल ही में सरकार ने स्कूली टीचरों के लिए एक टैस्ट करवाया जिसमें करीब 99 प्रतिशत फेल हो गए। ऐसे स्कूलों में बच्चे लंफगपन अधिक सीख रहे हैं और पढाई लिखाई कम। हर गांव हर मोहल्ले में आठवीं फेल, नौवीं नापास, दसवीं ड्रॉप आऊट छात्रों की भरमार लगी है जिनको स्कूली शिक्षा ने उनकी पुश्तैनी कलाओं व हुनर से नाता तुड़वा दिया, परन्तु आधुनिक शिक्षा के नाम अक्षर ज्ञान के अलावा कुछ नहीं दिया।
पारंपरिक पेशों - जैसे बुनकर, लोहार, कुम्हार, किसानी,इत्यादि में दिमागी और हाथ की दक्षता भी थी और आत्म सम्मान भी।
परन्तु फटीचर किस्म के अधिकतर सरकारी स्कूल किसी क्षेत्र में दक्षता देने में अक्षम हैं।
स्कूलों में टीचरो की डांट डपट व शारीरिक पिटाई बच्चों का आत्म विश्वास और आत्म सम्मान भी कुचल रही है। ऐसे ही युवक देश की लुम्पेन फौज का हिस्सा बन गांवों और शहरों में कहर मचा रहे हैं क्योंकि ढंग के रोजगार के वे हकदार ही नहीं।
कुछ वर्ष पहले महाराष्ट्र के एक गांव में मुझे स्थानीय लोगों ने बहुत गर्व के साथ नौवीं या दसवीं में पढ रहे एक छात्र से यह कहकर मिलवाया कि यह हमारा सबसे होनहार बच्चा है। मैने उससे एक लेख लिखने का आग्रह किया जिसका विषय था - मेरा जीवन और मेरी आकांक्षाएं। एक घंटे बाद उसने मुझे बहुत साफ, सुन्दर लिखाई में जो लेख दिया, उसका शीर्षक था - राष्ट्रपिता महात्मा गांधीं। मैंने हैरत से उसे पूछा कि उसने स्वयं अपने जीवन पर क्यू नहीं लिखा, तो उसका जवाब था, मैडम हमारे कोर्स में हमें उस विषय पर अभी लेख नहीं सिखाया । यानि अपने बारे में भी जो छात्र 20-25 वाक्य नहीं लिख सकता, सिर्फ रटे रटाए विषय पर ही लिख सकता है उसकी सोच विचार की शक्ति बुरी तरह कुचल दी गई है। मुझे दुख हुआ कि अगर यह बच्चा सरकारी शिक्षा वयवस्था का बेस्ट प्रोडक्ट है तो बाकियों का क्या हाल होगा।
जब सबसे होनहार छात्रों को यह हाल है तो छठी या दसवीं कक्षा के ड्रॉप आऊट का क्या हश्र होगा, सोचकर भी मन शोक से भर जाता है।
ऐसे गरीब टूटे बिखरे दरिद्रता लिप्त परिवारों के गुस्साये युवा बारूद के गोले बन समाज में चारो ओर भटक रहे हैं। 17 वर्ष का बलात्कारी भी गांव की गरीबी से हताश हो 12 साल की उम्र में अकेला शहर चल पड़ा। शायद तीसरी नापास का ठप्पा उसे भी लगा था। गरीब मां को मालूम भी नहीं जिन्दा है या मरा। उसने भी इस बेरहम शहर में कितनी दुत्कार झेली होगी, कितनी ठोकरें खाई होंगी, कितना शोषण भोगा होगा इसका अन्दाजा़ लगाना आसान नही। ऐसे बारूद नुमा युवाओं को विस्फोटक बनाने का काम हमारा मीडिया बखूबी कर रहा है। कटरीना कैफ और मलैइका अरोड़ा के सेक्सी झटके ठुमके 24 घंटे टीवी, सिनेमा हाल इत्यादि में उन्हें भडकाने का काम कर रहे हैं। उस पर पॉरनॉग्रफ़ी की चहुं ओर भरमार। इन सबके चलते स्त्री के प्रति सम्मान की दृष्टि ये टूटे बिखरे, प्रताडित व्यक्ति कहां से लाएं ?
भारतीय संस्कृति में स्त्री को सृष्टि रचयिता के रूप में पूजनीय माना गया और सेक्स को भी श्रद्धेय दृष्टि से देखा गया है। खजुराहो, कोनार्क व अन्य पुरातन मन्दिरों में लैंगिक क्रिया को जगह दी है। अजन्ता की चित्रकारी में स्त्री का शरीर लगभग वस्त्र विहीन है। परन्तु इन चित्रों या कोनार्क में शिव पार्वती के प्रेम अलिंगन को देख किसी में अभद्र भावनाएं नहीं उत्पन्न होतीं। सब श्रद्धेय लगता है।
परन्तु, किंगफिशर के कैलेण्डर में बिकीनी लैस लड़कियों को पेश करने का मकसद केवल एक ही है - मर्दों की लार टपके, उनमें सेक्स, उत्तेजना बढे और स्त्री भोग की वस्तु दिखे जिसके कपड़े पैसे देकर उतरवाए जा सकते हैं। विजय माल्या जैसे रईसजादों की ऐय्याशी के लिए तो ऐसी लडकियों की लाइन हर वक्त लगी है। परन्तु हमारे लुम्पेन युवाओं के लिये तो यह ऐय्याशी आसानी से उपलब्ध नहीं। वे तो औरत को नोचने-खसोटने के लिए सडकों पर ही शिकार करेंगे।
ऐसी वहशी ताकतों को रोकने का काम पुलिस अकेले कर ही नहीं सकती। यह तो परिवार और समाज ही कर सकता है। परन्तु हर वर्ग में परिवार की जडें कमजोर की जा रही हैं। अमीर व मध्यम वर्ग में पाश्चात्य संस्कृति की भोंडी नकल की वजह से संयुक्त परिवार को तोड़ना आधुनिकता की पहचान बन गई है। न्यूक्लियर परिवार में जहां पति पत्नी दोनों नौकरीपेशा हैं वहां बच्चों को नौकरों के हवाले करने का मतलब है, उनकी निरंकुश परवरिश। टीवी इन्टरनेट से दुनिया से नाता तो जुड सकता है परन्तु संस्कार देने का काम तो केवल परिवार ही कर सकता है जिसमें नानी, दादी बुआ, मौसी, चाचा, चाची का शामिल होना जरूरी है। जहां ऐसे परिवार आज भी जिन्दा हैं वहां बच्चे लफंगे नहीं बनते। जहां परिवार सिकुड़ गया और पडोसियों व रिश्तेदारों से नाता सिर्फ औपचारिक रह गया, वहां बच्चों का दिशाविहीन होना आसान है।
दूसरी ओर गरीब परिवार दरिदता की वजह से टूट रहे हैं। गांवों की गरीबी से बदहाल अधिकतर पुरुष अपना परिवार गांव में छोड़ रोजगार की तलाश में अकेले ही शहरों का रुख करते हैं क्योकि बेघर अवस्था में शहर में परिवार पालना और भी मुश्किल है। अकेले होने से शहरों में कुसंगत का असर जल्दी होता है और शराब, ड्रग्स व वेश्यावृत्ति की ओर कदम फिसल जाते हैं। परिवार के साथ आएं तो अपराध लिप्त स्लम्स में बच्चे पालना जोखिम भरा काम है। पता नहीं कब बेटी का अपहरण हो जाए या बीवी गुंडो से अपमानित हो।
इन टूटे बिखरे परिवारों से ही एक बडी़ लुम्पेन फौज तैयार हुई है। दिल्ली गैंग रेप का नाबालिग आरोपी भी इसी लुम्पेन फौज का सिपाही है। यह सब हमारे समाज के लिए खतरे की घंटी है क्योंकि देश में बढता अपराधीकरण एड्स वायरस की तरह पूरे समाज को घुन की तरह खा रहा है। इसका इलाज कानून में दो चार नए प्रावधान जोड या 100-200 को फांसी की सजा़ सुनाने से नही हो सकता। इसके लिए हम सब को धैर्य और संजीदगी से देश की राजनीति व प्रशासन की दशा और दिशा बदलने के साथ समाज की अन्दरूनी शक्ति को भी जागृत करना होगा, ताकि इन लुम्पेन युवाओं की तड़प, आक्रोश और एनर्जी को सही रचनात्मक आउटलेट्स दे सकें।
इस साइकोपैथिक फौज में तीन तरह के लोग शामिल हैं। पहला वह रईसजादा वर्ग है जिसने या जिसके बाप ने अवैध तरीके से अपार पैसा कमाया है। जाहिर है, यह पैसा उसे हजम नहीं हो रहा क्योंकि उसने उन संस्कारों को नहीं जिया है, जो हाथ में आई दौलत का सदुपयोग करना सिखाते हैं। भारतीय संस्कृति में सात्विक साधनों द्वारा धन संपत्ति कमाने और उसके सदुपयोग करने को बहुत अहमियत दी जाती है। हम तीन देवियों की साथ पूजा करते है। लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा। लक्ष्मी ईमानदारी से धन कमाने का संस्कार देती है और सरस्वती जी उसे विवके से इस्तेमाल करने का। दुर्गा बताती हैं कि अगर धन और बुद्धि का इस्तेमाल दुष्कर्मों के लिए किया तो व्यक्ति का वही हाल होगा, जो महिषासुर का हुआ। जिन परिवारो में सिर्फ लक्ष्मी पूजा पर बल दिया जाता है वहां कभी सही खुशहाली नहीं आती।
संस्कारहीन व्याक्ति विवेक छोड़ देता है और सोचता है कि पैसे से सभी को खरीदा जा सकता है सरकारी प्रशासन और पुलिस को भी। ऐसे व्यक्ति को औरत भी बिकाऊ लगती है और उन्हें बिकाऊ औरतें मिल भी जाती हैं। परन्तु, अमूमन इन रईसजादों को लड़कियों को सड़कों से उठाकर नोचने की जरूरत नहीं पड़ती। उनके लिए फाइव स्टार होटलों में कॉल गर्ल्स तैयार रहती है। उन कॉल गर्ल्स के साथ होटल के कमरों में क्या होता है, किसी को पता नहीं चलता।
दूसरा वर्ग है, भ्रष्ट राजनेताओं, सरकारी अधिकारियों और पुलिस ऑफिसरों के बच्चों का। ऐसे कितने ही पुलिस अदिकारी हैं और एमपी, एमएलए हैं जिनके बच्चे क्रिमिनल गैंग्स के सरगना हैं। उन्हें लगता है कि सरकार उनकी मुट्ठी में है। इस सरकारी तंत्र से उपजे रईसजादे के लिए भी हर इन्सान खिलौना है। औरत भी। उसके साथ खेल कर उसे तोड़ देना उनके लिए सामान्य बात है क्योंकि खिलौना टूटने पर उन्हें नए खिलौने मिल जाते हैं।
तीसरा वर्ग गरीब परिवारो से आता है गांवो से और छोटे शहरों के पुश्तैनी धंधों की गरीबी से हताश होकर, उजड़कर यह वर्ग बड़े शहरों में आकर बसता है। इन्हें हम इकोनॉमिक रिफ्यूजी कह सकते हैं। खेती व अन्य पुश्तैनी धंधे उनसे छिन चुके हैं क्योकि उनसे गुजारा नहीं होता। शहर आकर वे फुटपाथ पर रहते हैं या अवैध झुग्गी बस्तियों में। इन बस्तियों में यह गरीब उजड़े लोग पुलिस व राजनैतिक गुंडों की दहशत के साए तले रहते हैं। झुग्गी बनाने से लेकर बिजली, पानी कनेक्शन तक पुलिस और राजनैतिक माफिया को चढावा दिए बगैर कुछ नहीं मिलता। ऐसी बस्तियों में पुलिस अक्सर गरीबों को मजबूरन अपराधी गतिविधियों की ओर धकेलती है। ड्रग पैडलिंग, गरीब घर की औरतों को देह व्यापार में धकेलना, लड़कियां और छोटे बच्चों का अपहण करवाने जैसे काम पुलिस की देखरेख में होते हैं।
शहरी स्लम्स और अवैध बस्तियों के अपराध लिप्त माहौल में पले बच्चे बहुत आसानी से अपराध जगत की ओर फिसल जाते हैं क्योकि वहां हर रोज आत्म सम्मान को कुचल कर जीना पड़ता है।
हमारी सरकार ने बहुत ताम झाम के साथ राइट टू एजुकेशन का कानून तो पारित कर दिया, परन्तु स्कूल में काम चलाऊ शिक्षा तक देने का इन्तजा़म नही कर पाई। हमारा शिक्षक वर्ग पढाई से ज्यादा पिटाई में माहिर हैं। नतीजतन हमारे बीए एमए पास भी ढंग के चार वाक्य नहीं लिख पाते। दसवीं बारवीं पास को चौथी स्तर का गणित नहीं आता। हाल ही में सरकार ने स्कूली टीचरों के लिए एक टैस्ट करवाया जिसमें करीब 99 प्रतिशत फेल हो गए। ऐसे स्कूलों में बच्चे लंफगपन अधिक सीख रहे हैं और पढाई लिखाई कम। हर गांव हर मोहल्ले में आठवीं फेल, नौवीं नापास, दसवीं ड्रॉप आऊट छात्रों की भरमार लगी है जिनको स्कूली शिक्षा ने उनकी पुश्तैनी कलाओं व हुनर से नाता तुड़वा दिया, परन्तु आधुनिक शिक्षा के नाम अक्षर ज्ञान के अलावा कुछ नहीं दिया।
पारंपरिक पेशों - जैसे बुनकर, लोहार, कुम्हार, किसानी,इत्यादि में दिमागी और हाथ की दक्षता भी थी और आत्म सम्मान भी।
परन्तु फटीचर किस्म के अधिकतर सरकारी स्कूल किसी क्षेत्र में दक्षता देने में अक्षम हैं।
स्कूलों में टीचरो की डांट डपट व शारीरिक पिटाई बच्चों का आत्म विश्वास और आत्म सम्मान भी कुचल रही है। ऐसे ही युवक देश की लुम्पेन फौज का हिस्सा बन गांवों और शहरों में कहर मचा रहे हैं क्योंकि ढंग के रोजगार के वे हकदार ही नहीं।
कुछ वर्ष पहले महाराष्ट्र के एक गांव में मुझे स्थानीय लोगों ने बहुत गर्व के साथ नौवीं या दसवीं में पढ रहे एक छात्र से यह कहकर मिलवाया कि यह हमारा सबसे होनहार बच्चा है। मैने उससे एक लेख लिखने का आग्रह किया जिसका विषय था - मेरा जीवन और मेरी आकांक्षाएं। एक घंटे बाद उसने मुझे बहुत साफ, सुन्दर लिखाई में जो लेख दिया, उसका शीर्षक था - राष्ट्रपिता महात्मा गांधीं। मैंने हैरत से उसे पूछा कि उसने स्वयं अपने जीवन पर क्यू नहीं लिखा, तो उसका जवाब था, मैडम हमारे कोर्स में हमें उस विषय पर अभी लेख नहीं सिखाया । यानि अपने बारे में भी जो छात्र 20-25 वाक्य नहीं लिख सकता, सिर्फ रटे रटाए विषय पर ही लिख सकता है उसकी सोच विचार की शक्ति बुरी तरह कुचल दी गई है। मुझे दुख हुआ कि अगर यह बच्चा सरकारी शिक्षा वयवस्था का बेस्ट प्रोडक्ट है तो बाकियों का क्या हाल होगा।
जब सबसे होनहार छात्रों को यह हाल है तो छठी या दसवीं कक्षा के ड्रॉप आऊट का क्या हश्र होगा, सोचकर भी मन शोक से भर जाता है।
ऐसे गरीब टूटे बिखरे दरिद्रता लिप्त परिवारों के गुस्साये युवा बारूद के गोले बन समाज में चारो ओर भटक रहे हैं। 17 वर्ष का बलात्कारी भी गांव की गरीबी से हताश हो 12 साल की उम्र में अकेला शहर चल पड़ा। शायद तीसरी नापास का ठप्पा उसे भी लगा था। गरीब मां को मालूम भी नहीं जिन्दा है या मरा। उसने भी इस बेरहम शहर में कितनी दुत्कार झेली होगी, कितनी ठोकरें खाई होंगी, कितना शोषण भोगा होगा इसका अन्दाजा़ लगाना आसान नही। ऐसे बारूद नुमा युवाओं को विस्फोटक बनाने का काम हमारा मीडिया बखूबी कर रहा है। कटरीना कैफ और मलैइका अरोड़ा के सेक्सी झटके ठुमके 24 घंटे टीवी, सिनेमा हाल इत्यादि में उन्हें भडकाने का काम कर रहे हैं। उस पर पॉरनॉग्रफ़ी की चहुं ओर भरमार। इन सबके चलते स्त्री के प्रति सम्मान की दृष्टि ये टूटे बिखरे, प्रताडित व्यक्ति कहां से लाएं ?
भारतीय संस्कृति में स्त्री को सृष्टि रचयिता के रूप में पूजनीय माना गया और सेक्स को भी श्रद्धेय दृष्टि से देखा गया है। खजुराहो, कोनार्क व अन्य पुरातन मन्दिरों में लैंगिक क्रिया को जगह दी है। अजन्ता की चित्रकारी में स्त्री का शरीर लगभग वस्त्र विहीन है। परन्तु इन चित्रों या कोनार्क में शिव पार्वती के प्रेम अलिंगन को देख किसी में अभद्र भावनाएं नहीं उत्पन्न होतीं। सब श्रद्धेय लगता है।
परन्तु, किंगफिशर के कैलेण्डर में बिकीनी लैस लड़कियों को पेश करने का मकसद केवल एक ही है - मर्दों की लार टपके, उनमें सेक्स, उत्तेजना बढे और स्त्री भोग की वस्तु दिखे जिसके कपड़े पैसे देकर उतरवाए जा सकते हैं। विजय माल्या जैसे रईसजादों की ऐय्याशी के लिए तो ऐसी लडकियों की लाइन हर वक्त लगी है। परन्तु हमारे लुम्पेन युवाओं के लिये तो यह ऐय्याशी आसानी से उपलब्ध नहीं। वे तो औरत को नोचने-खसोटने के लिए सडकों पर ही शिकार करेंगे।
ऐसी वहशी ताकतों को रोकने का काम पुलिस अकेले कर ही नहीं सकती। यह तो परिवार और समाज ही कर सकता है। परन्तु हर वर्ग में परिवार की जडें कमजोर की जा रही हैं। अमीर व मध्यम वर्ग में पाश्चात्य संस्कृति की भोंडी नकल की वजह से संयुक्त परिवार को तोड़ना आधुनिकता की पहचान बन गई है। न्यूक्लियर परिवार में जहां पति पत्नी दोनों नौकरीपेशा हैं वहां बच्चों को नौकरों के हवाले करने का मतलब है, उनकी निरंकुश परवरिश। टीवी इन्टरनेट से दुनिया से नाता तो जुड सकता है परन्तु संस्कार देने का काम तो केवल परिवार ही कर सकता है जिसमें नानी, दादी बुआ, मौसी, चाचा, चाची का शामिल होना जरूरी है। जहां ऐसे परिवार आज भी जिन्दा हैं वहां बच्चे लफंगे नहीं बनते। जहां परिवार सिकुड़ गया और पडोसियों व रिश्तेदारों से नाता सिर्फ औपचारिक रह गया, वहां बच्चों का दिशाविहीन होना आसान है।
दूसरी ओर गरीब परिवार दरिदता की वजह से टूट रहे हैं। गांवों की गरीबी से बदहाल अधिकतर पुरुष अपना परिवार गांव में छोड़ रोजगार की तलाश में अकेले ही शहरों का रुख करते हैं क्योकि बेघर अवस्था में शहर में परिवार पालना और भी मुश्किल है। अकेले होने से शहरों में कुसंगत का असर जल्दी होता है और शराब, ड्रग्स व वेश्यावृत्ति की ओर कदम फिसल जाते हैं। परिवार के साथ आएं तो अपराध लिप्त स्लम्स में बच्चे पालना जोखिम भरा काम है। पता नहीं कब बेटी का अपहरण हो जाए या बीवी गुंडो से अपमानित हो।
इन टूटे बिखरे परिवारों से ही एक बडी़ लुम्पेन फौज तैयार हुई है। दिल्ली गैंग रेप का नाबालिग आरोपी भी इसी लुम्पेन फौज का सिपाही है। यह सब हमारे समाज के लिए खतरे की घंटी है क्योंकि देश में बढता अपराधीकरण एड्स वायरस की तरह पूरे समाज को घुन की तरह खा रहा है। इसका इलाज कानून में दो चार नए प्रावधान जोड या 100-200 को फांसी की सजा़ सुनाने से नही हो सकता। इसके लिए हम सब को धैर्य और संजीदगी से देश की राजनीति व प्रशासन की दशा और दिशा बदलने के साथ समाज की अन्दरूनी शक्ति को भी जागृत करना होगा, ताकि इन लुम्पेन युवाओं की तड़प, आक्रोश और एनर्जी को सही रचनात्मक आउटलेट्स दे सकें।