मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मुझे महिला अधिकार संबंधी मसलों को इतना महत्वहीन होते देखना पड़ेगा, वह भी उन लोगों के द्वारा जो महिलाओं की आजादी के संरक्षक होने का दावा करते हैं। ड्रेस कोड मसले पर उठे हालिया विवाद को ही लें। हरियाणा के भिवानी में पिछले दिनों एक कॉलेज प्रबंधन ने जींस व टी-शर्ट पहनकर आने पर 4 लड़कियों पर 100 रुपए का जुर्माना लगा दिया क्योंकि यह लड़कियों के लिए बने 40 साल पुराने देसी ड्रेस कोड (सलवार व कमीज) का उल्लंघन था।
छात्राओं पर 100 रुपए के इस मामूली जुर्माने पर विभिन्न चैनलों के टीवी एंकर अपने स्टूडियो में कुछ पेनलिस्टों को बिठाकर घंटों तक इस ‘तालिबानी फरमान’ के खिलाफ बहस करते रहे। उनका कहना था कि महिला अधिकारों पर हुए इस तरह के ‘हमलों’ से सख्ती से निपटा जाना चाहिए।
इन मीडियावालों ने जिस आतुरता के साथ ‘तालिबानी फरमान’ का जुमला इस्तेमाल किया, उससे मुझे लगा कि उन्हें कम से कम पांच साल के लिए असल तालिबान के साए में रखा जाना चाहिए, तभी वे इस जुमले की सही महत्ता समझ सकते हैं। तालिबानी जमीन पर लड़कियों के अलावा कोई मीडियाकर्मी भी अगर ‘तालिबानी फरमान’ के खिलाफ आवाज उठाने का साहस करे तो उसे महज १क्क् रुपए के जुर्माने के साथ बख्शा नहीं जाएगा, बल्कि उसके सिर में गोली उतार दी जाएगी।
हमसे कहा जाता है कि ड्रेस कोड का विचार ही दमनकारी और स्वतंत्रता-विरोधी है। ऊपरी तौर पर यह बात बहुत अच्छी लगती है कि हर व्यक्ति को अपनी पंसद के कपड़े पहनने की आजादी होनी चाहिए। लेकिन हमें यह भी देखना चाहिए कि दूसरों के संदर्भ में इस तरह की बात करने वाले लोग अपने जीवन में इसे कितना लागू करते हैं? मसलन क्या यह कोई इत्तफाक है कि हिंदी, अंग्रेजी, तमिल, मराठी समेत तमाम टीवी चैनलों के पुरुष टीवी एंकर एक जैसी ड्रेस पहनते हैं और अमूमन ब्लैक, नेवी ब्लू या डार्क ब्राउन वेस्टर्न आउटफिट्स में नजर आते हैं? उन्होंने यह आउटफिट्स ठंडे यूरोपीय प्रदेशों की देखादेखी अपनाया है। वे इसे चिलचिलाती पसीने वाली गर्मी में भी धारण किए रहते हैं। आखिर यह ड्रेस कोड किसने तय किया? आखिर कोई एंकर गर्मियों में धोती-कुर्ता या कुर्ता-पायजामा, आधी बांह की बंडी या टी-शर्ट में क्यों नहीं आता?
महिला न्यूज एंकर भले ही अब साड़ी पहनने के दौर से आगे निकल आई हों, लेकिन उन्होंने भी कॉपरेरेट सूट्स या फॉर्मल कुर्ता-सलवार को ही अपनाया है। कोई महिला न्यूज एंकर बैकलेस चोली-घाघरा पहनकर लेट नाइट पार्टियों में तो जा सकती है, लेकिन वह ऐसे आउटफिट में कोई गंभीर टॉक शो होस्ट नहीं कर सकती।
साफ है कि न सिर्फ भारत, बल्कि पूरी दुनिया में हर पेशे, हर संस्थान का कोई न कोई लिखित-अलिखित ड्रेस कोड है। लेकिन हमारे स्वघोषित सुधारक चयनात्मक ढंग से कुछ के खिलाफ ही विरोध जताते हैं। मिसाल के तौर पर आजाद भारत में भी हमने अपनी छात्राओं के लिए उसी ड्रेस कोर्ड को बड़े चाव और समर्पण के साथ अपनाया, जिसे एलीट इंग्लिश मीडियम व कॉन्वेंट स्कूलों ने लागू किया था। यहां तक कि साधारण प्राइवेट स्कूलों और अनेक सरकारी स्कूलों ने अनिवार्य ड्रेस कोड के नाम पर स्कर्ट्स व ट्यूनिक्स को अपना लिया।
मुझे हैरत है कि आजादी के छह दशक बाद भी किसी को औपनिवेशिक शासकों द्वारा प्रस्तावित उस भयावह ड्रेस कोड पर आपत्ति नहीं होती, जिसे हमारी कानून बिरादरी (जजों व वकीलों) द्वारा ज्यों का त्यों फॉलो किया जाता है। भारीभरकम ब्लैक गाउन पहनना गर्मियों में किसी सिरदर्द से कम नहीं। भगवान का शुक्र है कि हमें उन भूरे बालों वाले विग से निजात मिल गई, जो जजों को इस वजह से पहनना पड़ता था ताकि वे एक अलग प्रजाति से जुड़े नजर आएं। क्या सफेद कुर्ता-पायजामा पहनने से किसी वकील की योग्यता कम हो जाएगी?
संदेश साफ है। यदि आप पश्चिमी शैली का परिधान (भले ही यह भारत की मौसमीय हालात के हिसाब से अनुकूल न हो और अन्य मायनों में भी असुविधाजनक हो) अपनाते हैं, तो इसे ‘आजादी’ की दिशा में उठाया गया कदम समझा जाएगा। लेकिन यदि कोई यह सलाह दे कि हमें ज्यादा सुविधाजनक पारंपरिक परिधानों के साथ जुड़े रहना चाहिए, तो इसे पिछड़ी, अवरोधक सोच और तालिबानी मिजाज की निशानी माना जाता है।
इसमें यह संदेश भी निहित है कि यहां अभिभावकों, शिक्षकों, समुदाय के वरिष्ठ लोगों को ड्रेस कोड व सामाजिक नैतिकता के बड़े मसलों में कुछ बोलने की इजाजत नहीं है। यह तो दिल्ली में बैठे स्वघोषित समाज सुधारकों और उत्साही टीवी एंकरों का ही विशेषाधिकार है, जिन्होंने अंग्रेजों के जाने के बाद भारतीयों को ‘सभ्य बनाने’ का ठेका ले रखा है।
क्या इससे यह नहीं लगता कि हम आज बौद्धिक व भावनात्मक तौर पर पश्चिम के कहीं ज्यादा गुलाम हैं, उस दौर की तुलना में जब अंग्रेजों का भारत पर प्रत्यक्ष शासन था? और गुलामी के प्रति इस लगाव को हम ‘आधुनिकीकरण’ कहते हैं!
bahut achcha lekh likha aap ne madhu ji.....
ReplyDeleteपश्चिमीकऱण (WESTERNIZATION ) नही हमे आधुऩिकीकऱण (MODERNIZATION) कि ज़रुरत है।
ReplyDeletefully agree with you Maam. Particularly your point regarding wearing of knee length skirt in the winter months. I asked my niece about this and she told me it is school uniform. We should really think about. I feel no dress is bad only how you feel in it matters. If a girl does not feel comfortable in any particular dress she should be allowed dress of her choice.
ReplyDeleteI like the Rajul Sharma's thinking. Once Swami Vivekananda said western science coupled with Bhartiya Vedanta will make a tremendous positive power which will drive India to the right direction.and which will not only make India flourish but also a happy and prosperous India.
ReplyDeleteToday India is developing but at the same time being westernized too. But look at the people , what kind of relationship they are maintaining. Youngsters are morally bankrupt from a very young age.
Mam( Madhukishwar) do you think the present scenario is making India happy? Shouldn't we try something to restore the moral value in our youths?
I couldn't read what you think(wrote) about sarees. I used to study in private college. And all the female lecturer used to present themselves in sarees and they were very serious in their teaching.
anyway If I made mistakes in making my points or being rude(which I didn't want to), then I am really sorry and please let me know that.